Friday, 12 May 2017

मूर्ति पूजा की व्यर्थता


मूर्ति पूजा की व्यर्थता



इन्द्रजित देव जी

आर्यसमाज के यशस्वी दार्शनिक विद्वान् श्री पंडित गंगा प्रसाद जी उपाध्याय जी एक बार अपने उपदेश में ईश्वर की सर्वव्यापकता का मंडन व मूर्ति पूजा का खंडन कर चुके तो उस सभा में ही एक श्रोता ने खड़े होकर प्रश्न कर दिया

तुम वेद के ठेकेदारों से हैं, यह मेरा सवाल

कण-कण में खुदा हैं तो मूर्ति में क्यूँ नहीं?

श्री उपाध्याय जी ने प्रश्न सुनकर पूछा कि प्रश्न का उत्तर तुम्हारी तरह पद्य में दूँ या गद्य में? प्रश्नकर्ता ने कहा कि मजा तो इसी में हैं कि आप उत्तर भी मेरी तरह पद्य में ही दें.

तब पंडित जी ने उत्तर देते हुए कहाँ:-

तुम पुराण के ठेकेदारों को हैं यह मेरा जवाब,

मूर्ति में खुदा तो हैं पर तुम तो उसमें हो नहीं.

प्रश्नकर्ता पौराणिक था व उसका तात्पर्य यह था कि जब ईश्वर सर्वव्यापक हैं, तो वह मूर्ति में भी स्वत: सिद्ध होता हैं. जब मूर्ति में ईश्वर का होना सिद्ध हो गया, तो मूर्ति कि पूजा ईश्वर कि पूजा हो तो सिद्ध होती हैं. फिर मूर्ति पूजा का विरोध या निषेध क्यूँ किया जाता हैं?

इस प्रश्न का उत्तर हैं कि ईश्वर अति सूक्षम हैं.वह दृश्यमान नहीं हैं , साकार नहीं हैं. रंग, रूप व आकार आदि गुण प्रकृति से बनाए सृष्टि के दृश्यमान पदार्थों के हैं. ईश्वर के नहीं हैं.

साकार मूर्ति ईश्वर ने नहीं बनाई. ईश्वर ने प्रकृति से पत्थर बनाए तथा मनुष्य ने पत्थर से मूर्ति बनाई. प्रकृति, पत्थर व मूर्ति में अपने अन्तर्यामी व सर्वव्यापक गुणों के कारण से ईश्वर तो विद्यमान हैं, यह सत्य हैं परन्तु इन सब में से कोई भी ईश्वर नहीं हैं, यह भी सत्य हैं. इसे इस प्रकार भी कहाँ जा सकता हैं कि मूर्ति में ईश्वर हैं, परन्तु मूर्ति- मूर्ति ही हैं, वह ईश्वर नहीं हैं. सर्वव्यापक निराकार ईश्वर कि मूर्ति बन भी नहीं सकती क्यूंकि एक मूर्ति में न सिमट सकने वाले ईश्वर को आप कैसे सीमित कर सकते हैं .

इसके विपरीत आत्मा ईश उपासना या भक्ति करना चाहता हैं. वह ईश्वर कि तरह न तो अन्तर्यामी हैं तथा न ही सर्वव्यापक हैं. हमारे ह्रदय में आत्मा हैं. आत्मा ईश्वर के निकट विद्यमान हैं. आत्मा का ईश्वर से मिलना, योग व समाधी में अनुभूति द्वारा ही संभव हैं .ह्रदय से बाहर मूर्ति में विराजमान ईश्वर का मिलन विभिन्न स्थान होने से कैसे संभव हैं ? दो व्यक्तियों का मिलना पृथक- पृथक स्थानों पर होने से संभव ही नहीं हैं .जब दोनों व्यक्ति एक स्थान पर आये तो ही उनका मिलन होगा. प्रत्यक्ष: में भी हम यही देखते हैं.

मनुष्य में आत्मा केवल और केवल उसके ह्रदय में ही हैं और ह्रदय में ही रहेगी. आत्मा सर्वव्यापक नहीं हैं. वह पत्थर कि मूर्ति में भी नहीं हैं और अन्यत्र कहीं नहीं जा सकती. अत: आत्मा और परमात्मा का मिलन मूर्ति में नहीं हो सकता. जब एक वस्तु हमारे निकटतम हो तो उसे प्राप्त करने के लिए दूर जाने कि आवश्यकता ही नहीं हैं. अल्पज्ञों को यह बात समझ नहीं आती व वे मूर्ति को ही ईश्वर मानकर उसकी पूजा करते हैं.

गीता में १८/६१ में कहाँ भी गया हैं कि हे अर्जुन! ईश्वर सभी प्राणियों के ह्रदय में स्थित हैं.

यजुर्वेद ४०/५ में ईश्वर के विषय में कहाँ गया हैं- वह दूर भी हैं, वह समीप भी हैं, वह भीतर भी हैं, वह बाहर भी हैं.

अज्ञानी लोग ईश्वर को आत्मा से दूर मानते हैं इसीलिए ईश्वर को वे पत्थरों में, पेड़ों में, चित्रों में,नदियों में,तीर्थों में,चौथें आसमान पर, सातवें आसमान पर, कैलाश पर, क्षीर सागर पर, गोलोक में होना मानते हैं.

किन्तु सच्चे आस्तिकों, योगियों व विद्वानों के विचार में ईश्वर हमारे भीतर आत्मा में ही मिलते हैं.

हम उसमें हैं और वह हममें हैं. इससे अधिक निकटता- समीपता अन्य किसी भी दो वस्तुयों में नहीं हैं. अत: ईश्वर को प्राप्त करने के लिए आत्मा से बाहर जाने कि आवश्यकता नहीं हैं. हमारा ईश्वर हमारी आत्मा में ही हैं. आत्मा बाहर मूर्ति में जा नहीं सकती. उपासना का सही अर्थ हैं निकट बैठना और हमारे ह्रदय में आत्मा ही ईश्वर के समीप बैठ सकती हैं. मूर्ति कि आकृति को व्यक्त किया जा सकता हैं जबकि ईश्वर के निराकार होने के कारण उनके रूप को व्यक्त नहीं किया जा सकता. वेदांत दर्शन के ३/२/२३ में और कठोपनिषद २/३/१२ में लिखा हैं कि ईश्वर वाणी, मन , नेत्रों से प्राप्त नहीं किया जा सकता.

इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्द शास्त्रथ महारथी पंडित राम चन्द्र दहेलवी का कथन कि “हम ईश्वर को मूर्ति के भीतर अ बाहर स्वीकार करते हैं. हम मूर्ति का खंडन नहीं अपितु मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं. जब ईश्वर सर्वत्र हैं तो मूर्ति के भीतर वाले ईश्वर को ही आप क्यों पूजना चाहते हैं? मूर्ति के बाहर वाले ईश्वर को आप क्यों नहीं पूजना चाहते? मान लीजिये, आप मुझे मिलने आये हैं तथा मैं आपको अपने द्वार के बाहर ही मिल जाऊ तो मुझसे मिलने में आपको अधिक सुविधा होगी अथवा मेरे भीतर होने पर होगी. भगवान् तो सब जगह हैं उससे बाहर ही मिल लीजिये, व्यर्थ में मूर्ति के अन्दर वाले के पीछे क्यों पड़े हैं? आप मूर्ति में दाखिल नहीं हो सकते और मूर्ति वाला ईश्वर बाहर नहीं आ सकता. क्यों मुश्किल में पड़ते हो? सरल काम कीजिये और मूर्ति से बाहर वाले कि पूजा कर लीजिये.

मूर्ति में ईश्वर को व्यापक मानकर मूर्ति कि पूजा करने वालों से हमारा यह अनुरोध हैं कि ईश्वर मूर्ति से बाहर भी सर्वत्र हैं व हमारे ह्रदय में तो वह अन्तर्यामी होने से अत्यंत निकट हैं. ईश्वर को बाहर तलाशने वालों के लिए यह भजन कि पंक्तियाँ प्रेरणादायक हैं

तेरे पूजन को भगवान बना मन मंदिर आलीशान

किसने देखी तेरी सूरत, कौन बनाए तेरी मूरत ?

तू ही निराकार भगवान् बना मन मंदिर आलीशान.

https://agniveerfan.wordpress.com/2012/04/05/idol/

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