Friday, 12 May 2017

बुर्के के पीछे का सच


बुर्के के पीछे का सच



बुर्क़ा मुस्लिम संस्कृति का एक हिस्सा है ,लेकिन इस्लाम का एक हिस्सा नहीं है । और फरीदा ख़ानम  कहती हैं, कि यह भेद, ध्यान में रखना ज़रूरी है। आजकल बुर्क़ा या पर्दा खबरों में छाया हुआ है। सामान्यत: इसे इस्लाम का अनिवार्य अंग समझा जाता है,लेकिन ऐसा है नहीं। वास्तव में, बुर्क़ा मुस्लिम संस्कृति का एक हिस्सा है, और इस्लामी शिक्षा का हिस्सा नहीं । मुसलमानों और इस्लाम के बीच एक बड़ा अंतर है। अग़र यह दावा किया जाता है कि बुर्का या पर्दा मुस्लिम संस्कृति का एक हिस्सा है तो मैं कहूँगी हां,लेकिन अग़र यह दावा किया जाता है कि इसे पहनना क़ुरानी शिक्षा का एक हिस्सा है तो मैं कहूँगी नहीं।

इस्लाम का स्रोत मुस्लिम संस्कृति नहीं, क़ुरान है। मुस्लिम संस्कृति एक सामाजिक तथ्य है, जबकि क़ुरान एक ईश्वरीय पुस्तक है जो इस्लाम के पैग़म्बर के समक्ष प्रकट की गयी थी। भाषिक इतिहास के अनुसार बुर्क़ा शब्द का अर्थ कपड़े का एक टुकड़ा था जिसे, विशेषकर सर्दियों में, हिफ़ाजत के लिये इस्तेमाल किया जाता था। प्रसिद्ध अरबी शब्दकोश लिसान अल-अरब हमें इस्लाम पूर्व काल में इसके इस्तेमाल के दो उदाहरण देता है: पहला,सर्दी के मौसम में जानवरों को उढ़ाने की और दूसरा गांव की औरतों के लिया शाल की तरह ओढ़ने की चादर का। यद्यपि अरबी शब्दावली में ‘बुर्क़ा’ शब्द मौजूद था, क़ुरान में बुर्क़ा शब्द का इस्तेमाल औरतों के पर्दे के लिये नहीं किया गया है।

इतिहास बताता है कि पर्दा या ‘बुर्क़े’ के इस्तेमाल की शुरुआत फारस (ईरान) से हुई।फारस में जब इस्लाम का प्रवेश हुआ तब वहां एक संस्कृति पहले से ही मौजूद थी। इस्लामी संस्कृति में अनेक चीज़े फारसी संस्कृति से आईं हैं।उदाहरण के लिये अल्लाह की जगह ख़ुदा,सलात की जगह नमाज़ जैसे शब्द ।इसी तरह ईरानी संस्कृति के प्रभाव में मुसलमानों ने बुर्क़ा अपना लिया।

क्रमश: इसका इस्लामीकरण हो गया और यह इस्लामी संस्कृति हिस्सा बन गया। आजकल मुसलमान ‘हिजाब’ शब्द का इस्तेमाल बुर्क़े की तरह करते हैं, लेकिन ‘हिजाब’ शब्द का इस्तेमाल क़ुरानी अर्थोँ में नहीं किया जाता है। हिजाब का शाब्दिक अर्थ है पर्दा। क़ुरान मे हिजाब शब्द का इस्तेमाल सात बार किया गया है, लेकिन उस अर्थ में नहीं जो आज मुसलमानों में प्रचलित है। औरतों के पर्दे के बारे में क़ुरान में दो शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जिलबाब(33:59 ) और ख़िमर।लेकिन इन शब्दों का इस्तेमाल भी इनके वर्तमान अर्थों मे नहीं किया गया है।

यह एक तथ्य है कि दोनों शब्दों का अर्थ समान है,यानी एक औरत के चेहरे नहीं बदन को ढ़ाँकने वाली एक चादर या दुपट्टा। अत: यह स्पष्ट है कि वर्तमान बुर्क़ा या ‘हिजाब’ कुरानी शब्द नही हैं। दोनों मुस्लिम संस्कृति का हिस्सा हैं क़ुरान के आदेशों का हिस्सा नहीं। फिक्ह के(इस्लामी धर्म शास्त्र) हनफी और मालिकि संप्रदाय के अनुसार औरत के बदन के तीन हिस्से सतर(बदन को ढ़ाकने वाला वस्त्र) के बाहर हैं – वजाह(चेहरा),कफाईन(हाथ) और क़दमाईन(पैर)। शरिया के अनुसार औरतों को अपने बदन को ऐसे कपड़ों से ढ़ंकना चाहिये जो चुस्त और दूसरों को आकर्षित करने वाले ना हों।(अध्याय 24,सूरा 31,तसफीर उसमानी)।

यह ग़ौर करने की बात है कि मशहूर अरबी विद्वान शेख़ मुहम्मद नासिरुद्दीन अल-अलबानी ने अपनी किताब हिजाब अल-माराह अल-मुसलमिह -फिल किताब(एक मुसलमान औरत का पर्दा) में ऊपर चर्चा किये गये शरिया के द्दष्टिकोण का अनुमोदन किया है। उन्होने यह भी लिखा है कि क़ुरान,हदीस और (पैग़म्बर मोहम्मद के) साथियो तथा ताबियून( पैग़म्बर के साथियों के साथी) के व्यवहार से यह साफ है कि जब भी एक औरत घर के बाहर पैर रखती है तब उसका फर्ज है कि वह अपने बदन को इस तरह ढाँके कि चेहरे और हाथों के अलावा और कुछ न दिखाई दे।

इस्लाम धर्म स्वरूप के बजाय आत्मा पर केंद्रित है। यह धर्मनिष्ठ सोच और मूल्यों पर आधारित चरित्र पर बल देता है।मुसलमानों को नैतिक रूप से अपने को शुद्ध करना चाहिये। मुसलमान औरतों को अपने को अध्यात्मिक रुप से विकसित करना चाहिये, आदमियों का अनुकरण करने के बजाय उन्हे अपने नारी-सुलभ व्यक्तित्व को विकसित करना चाहिये और मनोरंजन की वस्तु बनने के बजाय समाज में एक सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिये। पैग़म्बर के समय मुसलमान औरतें खेती,बाग़बानी और सामाजिक कार्य जैसे क्षेत्रों में सक्रिय थीं।

लेकिन इसके साथ ही वे अपने नारी-सुलभ चरित्र को बरक़रार रखतीं थीं। इस्लाम के आरंभिक इतिहास में अनेक ऐसी घटनायें हैं जो दिखातीं है कि एक औरत को एक आदमी के समान आज़ादी प्राप्त थी। इस मामले में दोनों के बीच कोई भेद नहीं है। इस्लाम में एक औरत को वही आज़ादी मिली है जो एक आदमी को। इस्लामी साहित्य कुछ धर्मनिष्ठ औरतों का ज़िक्र करता है जिन्होने अपने समाजों में एक अत्यंत सकारात्मक भूमिका अदा की थी,जैसे पैग़म्बर इब्राहीम की पत्नी हाजिरा,ईसा मसीह की मां मरियम,इस्लाम के पैग़म्बर की पत्नी खदीजा, इस्लाम के पैग़म्बर की पत्नी आयशा।

इन औरतों को मुस्लिम समाज में आदर्श की तरह देखा जाता है और वे आज की औरतों के लिये अच्छी उदाहरण हैं। निष्कर्ष में मैं दो संदर्भ जोड़ना चाहूँगी: एक क़ुरान से और दूसरा हदीस(पैग़म्बर की उक्तियां) से है। क़ुरान में आदमियों और औरतों का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है, ”तुम दोनों एक दूसरे का अंग हो” (3:195)। इसका मतलब है कि आदमी और औरत लैंगिक रूप से भिन्न तरह से रचे जाने के बावजूद एक दूसरे के पूरक हैं। अब दूसरा संदर्भ लेते हैं। इस्लाम के पैग़म्बर ने कहा,” आदमी और औरत एक इकाई के दो बराबर के हिस्से हैं”।(मसनाद अहमद)

लैंगिक समता की यह सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है। वर्तमान समय में मुस्लिम समाज में हिजाब के प्रचलन को समझने के लिये यह बात ध्यान में रखनी ज़रूरी है कि इस्लाम और मुसलमानों के बीच एक भेद है। इस्लाम एक विचारधारा का नाम है जबकि मुसलमान एक समुदाय हैं जिसकी अपनी संस्कृति है जो अनेक परिस्थितियों के कारण बदलती रहती है।ऐसी स्थिति में मुस्लिम परंपरा को इस्लाम की मूल शिक्षाओं के आधार पर आंका जायेगा नाकि मुसलमानों की संस्कृति के आधार पर।

http://hindi.speakingtree.in/article/content-265777

0 comments:

Post a Comment