अवसाद ग्रस्त होने के कारण अवसाद से वाचाव एवं समाधान
अवसाद या डिप्रेशन का तात्पर्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में मनोभावों संबंधी दुख से होता है। इसे रोग या सिंड्रोम की संज्ञा दी जाती है। आयुर्विज्ञान में कोई भी व्यक्ति डिप्रेस्ड की अवस्था में स्वयं को लाचार और निराश महसूस करता है। उस व्यक्ति-विशेष के लिए सुख, शांति, सफलता, खुशी यहाँ तक कि संबंध तक बेमानी हो जाते हैं। उसे सर्वत्र निराशा, तनाव, अशांति, अरुचि प्रतीत होती है।
अवसाद के भौतिक कारण भी अनेक होते हैं। इनमें कुपोषण, आनुवांशिकता, हार्मोन, मौसम, तनाव, बीमारी, नशा, अप्रिय स्थितियों में लंबे समय तक रहना, पीठ में तकलीफ आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त अवसाद के ९० प्रतिशत रोगियों में नींद की समस्या होती है। मनोविश्लेषकों के अनुसार अवसाद के कई कारण हो सकते हैं। यह मूलत: किसी व्यक्ति की सोच की बुनावट या उसके मूल व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। अवसाद लाइलाज रोग नहीं है। इसके पीछे जैविक, आनुवांशिक और मनोसामाजिक कारण होते हैं। यही नहीं जैवरासायनिक असंतुलन के कारण भी अवसाद घेर सकता है।
इसकी अधिकता के कारण रोगी आत्महत्या तक कर सकते हैं।
इसलिए परिजनों को सजग रहना चाहिए और उनके परिवार का कोई सदस्य गुमसुम रहता है, अपना ज्यादातर समय अकेले में बिताता है, निराशावादी बातें करता है तो उसे तुरंत किसी अच्छे मनोचिकित्सक के पास ले जाएं। उसे अकेले में न रहने दें। हंसाने की कोशिश करें।
मनोविश्लेषकों के अनुसार प्राकृतिक तौर पर महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अवसाद की शिकार कम बनती हैं, लेकिन अवांछित दबावों से वह इसकी शिकार हो सकती हैं। इस कारण प्रायः माना जाता है कि महिलाओं को अवसाद जल्दी आ घेरता है। इसके विपरीत पुरुष अक्सर अपनी अवसाद की अवस्था को स्वीकार करने से संकोच करते हैं। मोटे अनुमान के अनुसार दस पुरुषों में एक जबकि दस महिलाओं में हर पांच को अवसाद की आशंका रहती है।
अवसाद अक्सर दिमाग के न्यूरोट्रांसमीटर्स की कमी के कारण भी होता है। न्यूरोट्रांसमीटर्स दिमाग में पाए जाने वाले रसायन होते हैं जो दिमाग और शरीर के विभिन्न हिस्सों में तारतम्यता स्थापित करते हैं। इनकी कमी से भी शरीर की संचार व्यवस्था में कमी आती है और व्यक्ति में अवसाद के लक्षण दिखाई देते हैं। इस तरह का अवसाद आनुवांशिक होता है। अवसाद के कारण निर्णय लेने में अड़चन, आलस्य, सामान्य मनोरंजन की चीजों में अरुचि, नींद की कमी, चिड़चिड़ापन या कुंठा व्यक्ति में दिखाई पड़ते हैं। अवसाद के कारणों में इसका एक पूरक चिंता (एंग्ज़ायटी) भी है।
इसके उपचार में योगासन में प्राणायाम बहुत सहायक सिद्ध हुआ है। कई बार अतिरिक्त चिड़चिड़ापन, अहंकार, कटुता या आक्रामकता अथवा नास्तिकता, अनास्था और अपराध अथवा एकांत की प्रवृत्ति पनपने लगती है या फिर व्यक्ति नशे की ओर उन्मुख होने लगता है। ऐसे में जरूरी है कि हम किसी मनोचिकित्सक से संपर्क करें। व्यक्ति को खुशहाल वातावरण दें। उसे अकेला न छोड़ें तथा छिन्द्रान्वेषण कतई न करें। उसकी रुचियों को प्रोत्साहित कर, उसमें आत्मविश्वास जगाएँ और कारण[6] जानने का प्रयत्न करें।[1] अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने गहन शोध के बाद यह दावा किया है कि यदि कोई व्यक्ति लगातार सकारात्मक सोच का अभ्यास करता है, तो वह उसके डिप्रेशन या अवसाद की स्थिति का एकमात्र इलाज हो सकता है। अमेरिकन एकेडमी ऑफ फैमेली फिजिशियन का कहना है कि लोगों को नकारात्मक नहीं सोचना चाहिए। न ही विफलता के भय को लेकर चिंतित होते रहना चाहिए। इनकी बजाय हमेशा सकारात्मक सोच दिमाग में रखना चाहिए जो होगा अच्छा होगा। घर में अन्य सदस्यों को अवसाद की बीमारी होने से भी यह परेशानी महिलाओं को जल्दी पकड़ती है। क्योंकि घर से लगाव पुरुषों के मुकाबले उन्हें ज्यादा होता है। इसके चलते कभी-कभी उनमें आत्महत्या की इच्छा जोर मारने लगती है। इसलिए पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का अवसाद ज्यादा खतरनाक होता है। हालांकि मंदी और कॉम्पटीशन के दौर में डिप्रेशन अब युवाओं को भी अपना शिकार बनाने लगा है इसलिए कोशिश यह रखनी चाहिए कि आप खुशनुमा पलों की तलाश करें और सकारात्मक सोच रखें। इससे बचने के उपायों में व्यस्त रहकर मस्त रहना, अपने लिए समय निकालना, संतुलित आहार सेवन, अपने लिए समय निकालना और सामाजिक मेलजोल बढ़ाना मूल उपाय हैं।
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अवसाद :- एक समस्या के कारण से निवारण तक ।" भारत में अवसाद के उपचार मौजूद होने के बाद भी अवसाद का एक महामारी की तरह प्रसार।"
वर्ष 2014 में हुए सर्वेक्षण के अनुसार भारत हैप्पी प्लेनेट इंडेक्स में अपने नागरिकों को लंबा और खुशहाल जीवन देने में भारत 151 देशों में चौथे स्थान पर था । अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है, भुगतान सन्तुलन सुधर रहा है और राजस्व घाटा कम हो रहा है । 2014 के मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स के मुताबिक , 64 फीसदी से भी अधिक भारतीय अपनी नौकरी, काम और निजी जीवन के संतुलन से खुश है ।
लेकिन ये उल्लास और खुशहाली अपने भीतर एक गहरा राज छिपाए है । अवसाद की विकरालता, जिसकी कोई साफ़ वजह नजर नहीं आती । ये रोग दिमाग पर कब्ज़ा कर बैठता है, व्यक्तित्व को खा जाता है और जीवन को नष्ट कर देता है।
भारत में आज चार महिला में से एक महिला और दस में से एक पुरुष अवसाद का शिकार है, जिसमें 67 प्रतिशत पीड़ितों में आत्महत्या की प्रवृति देखी गई और 17 प्रतिशत ने तो इसकी कोशिश भी की और 45 प्रतिशत किशोर अवसाद के लक्षणों के बाद शराब और मादक दवाओं की शरण लेते है ( स्रोत : मेन्टल हेल्थ: अ वर्ल्ड ऑफ डिप्रेशन,नेचर,2014; मेंटल हेल्थ रिसर्च इन इंडिया, आईसीएमआर ) । 'डेली' ( डिसेबिलिटी एडजेस्टेड लाइफ ईयर ऑर हेल्दी लाइफ लॉस्ट टु प्रिमिच्योर डेथ ऑर डिसेबिलिटी ) में आंका जाने वाला ये रोग 1990 में ही बड़े रोगों का चौथा बड़ा कारण था । विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि 2020 तक यह सबसे बड़ा कारण बन जाएगा । अवसाद के और भी कई पहलू है । हर चार मिनट में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है ।
भारत में 30 साल से कम उम्र के युवाओं की मौत तो आत्महत्या की वजह से होती है । एक दशक पहले की तुलना में अब ये आकड़ा चार गुना हो गया है । नई दिल्ली के फोर्टिस हैल्थकेयर ऐंड बिहेवियरल साइंसेस के डायरेक्टर डा. समीर पारेख कहते है, " आत्महत्या के समय किसी-न-किसी मानसिक विकार से पीड़ित होते है । इनमे भी 75 के पास अवसाद की वजह मामूली ही होती है ।"
पिछले साल इंटरनेशनल साइकोएनेलिटिक एसोसिएशन ने एक किताब में मनोविश्लेषण के एशियाई टाइगरों- चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और भारत का जश्न मनाया था । इस किताब में बताया गया था कि सिगमंड फ्रायड ने मुश्किल से 100 साल पहले जिसे 'टाकिंग क्योर' यानी बातचीत से निदान कहा था, पूरब के देशों में वह किस तरह जबरदस्त ताकत बन गया है । इन पाँचों में भारत ही वह देश है, जहां मनोविश्लेषण का लंबा इतिहास रहा है । यहां यह विधा उतनी ही प्राचीन है, जितनी पशिचम में है । भारतीय मनोविश्लेषण के जनक गिरीन्द्र शेखर बोस (1887-1953) फ्रायड के समकालीन थे । लेकिन दुर्भाग्यवश आज भारत में 3,500 पेशेवर मनोरोग चिकित्सक है, बल्कि देश को लगभग 11,500 चिकित्सकों की ज़रूरत है । हैरत की बात है कि वैज्ञानिकों को इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि आखिर हताशा होती ही क्यों है ? जिसके लिए भारत में मनोविश्लेषण और मनोचिकित्सा के विस्तार की आवश्यकता है ।
इसके साथ ही साथ, निजी समस्याओं के बारे में खामोश रहने की हमारी संस्कृति तब और भी बुरी तरह से उभरकर आती है, जब हम भारत की भीषण सामाजिक-आर्थिक गैरबरबरियों से दो-चार होते है । हमारे दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि चारों तरफ इतनी भीषण गरीबी से घिरे होने पर अच्छे-भले, खाते-पीते लोगों को अपनी निजी समस्याओं के बारे में जबान खोले बगैर शांति से रहना चाहिए । मनोवैज्ञानिक समस्याएं और इनका इजहार आत्ममुग्धता नहीं, बल्कि आत्मरति माना जाता है, जो बिगड़ैलों, नवधनाढ्यों और 'विदेशियों' को ही शोभा देते है ।
आज अवसाद भारत में दबे पाँव तेज़ी से मानव-जीवन को अपने चपेट में ले रहा है, जो ना केवल एक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या है। बल्कि इसके परिणाम:- आत्महत्या व मानव जीवन के साथ-साथ पारिवारिक जीवन बढ़ते बिखराव सामाजिक समस्या के रूप में सामने आ रही है । इसमें सबसे आश्चर्य की बात ये है कि अवसाद का इलाज़ भी उपलब्ध होने के बावजूद ये लोगों से कोसों दूर मालूम पड़ता है । अतः शोधकर्ति ने अवसाद की समस्या और इसके इलाज के बीच की बढ़ती दूरी की समस्या को इस संगोष्टी के लिए चयनित किया ।
अब यदि बात की जाय अवसाद के कारणों की तो उपयुक्त विवेचन के आधार पर हम अवसाद की समस्या के प्रमुख कारणों को निम्न बिंदुओं में लिख सकते है :-भारत में अवसाद की समस्या बढ़ने के प्रमुख कारण :-
1- जागरूकता का अभाव,
2- मनोविज्ञान के प्रति लोगों की भ्रान्ति,
3- मनोचिकित्सकों की संख्या में कमी एवं मनोविज्ञान के सिमित क्षेत्र,
4- सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष व एकाकीपन ।
साहित्य अवलोकन :-
फ्रेंच समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम ने सन् 1897 में ' सुसाइड ' नाम की एक पुस्तक प्रकाशित करवायी । जिसके अंतर्गत दुर्खीम ने सुसाइड, यानी आत्महत्या पर फ़्रांस के प्रोटेस्टेंट और कैथोलिकों को केस स्टडी के तौर पर चुना । दुर्खीम ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में, आत्महत्या के कारणों पर चर्चा की, जिसके अंतर्गत उन्होंने बताया कि आत्महत्या कोई अचानक से लिया गया फैसला नहीं होता, बल्कि ये एक लम्बी प्रक्रिया का निष्कर्ष होता है । जिसे हम अवसाद कहते है । उन्होंने अवसाद के कारणों में सामाजिक कारकों को प्रमुख पाया । जिसमें ज़्यादातर मनुष्य सामाजिक व सांस्कृतिक वैचारिक- संघर्ष के दौरान अवसाद का शिकार होते चले जाते है और अवसाद के अंतिम चरण में आत्महत्या जैसी समस्या का शिकार हो जाते है ।
इसके अतिरिक्त, अवसाद के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण मानी जाने वाला सिद्धांत- ' Cognitive Theory of Depression ', जिसे डॉ. आरोन बेक ने प्रतिपादित किया । इस सिद्धान्त में बेक का मानना है कि, अवसाद का प्रमुख कारण सामाजिक व सास्कृतिक संघर्ष होता है । और 'आत्महत्या' जैसी घटनाएं अवसाद के दुष्परिणाम के रूप में हमारे सामने आती है
समस्या का समाधान :-
भारत में उपचार उपलब्ध होने के बावजूद अवसाद एक महामारी की तरह मानव-जीवन जो अपनी चपेट में ले रहा । जिससे ये पता चलता है कि अवसाद की समस्या और इसके उपचार में एक गहरी फांक है जो पीड़ितों के जीवन को बचाने में सफल नहीं हो पा रही । जब हम इस समस्या के कारणों का विश्लेषण करने पर हम निम्नवत कुछ कारकों को प्रमुख पाते है :-
1- जागरूकता का अभाव,
2- मनोचिकिसक के प्रति लोगों की भ्रान्ति,
3- मनोवैज्ञानिकों की कमी व मनोविज्ञान का सीमित क्षेत्र
4- सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष व एकाकीपन ।
यदि इन प्रमुख कारणों पर प्रभावी रूप से कार्य किया जाए तो इस समस्या से निजात पाया जा सकता है । अतः उपयुक्त कारणों का विवरण तथा इनके उपायों का विवरण इस प्रकार से है :-
जागरूकता का अभाव :-
कई सर्वेक्षणों में ये पाया गया है कि भारतीय लोगों में अवसाद के प्रति उनकी कम जागरूकता इसे बढ़ावा दे रही है । यदि बात की जाए अवसाद के लक्षणों की तो प्राथमिक चरण में अवसाद के लक्षण बेहद आम नजर आते है, जैसे -भूख न लगना, नींद न आना या ज़्यादा नींद आना या मन एकाग्रचित न कर पाना इत्यादि ।द्वितीयक चरण में, थकान महसूस करना, अपने पसन्दीदा कार्य में मन न लगना, चिड़चिड़ापन व नकारात्मक दृष्टिकोण में बढ़ोतरी इत्यादि। आमतौर पर लोग इन लक्षणों को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते है ।
अवसाद के उपचार के प्रति लोगों में जागरूकता का अभाव देखने को मिलता है । उन्हें इस बात की सही जानकारी नहीं होती कि क्या अवसाद का कोई इलाज़ है या नही, अगर है तो किस स्थान पर ? अतः जागरूकता के अभाव में हम दो प्रमुख पहलू पाते है :-
1- अवसाद के लक्षणों के बारे में जानकारी ना होना,
2- अवसाद के उपचार के बारे में जानकारी ना होना।
समाधान:-
टीवी, रेडियो, अखबार व सार्वजनिक स्थानों पर पोस्टर के माध्यम से लोगों को अवसाद के लक्षणों के बारे जानकारी दी जा सकती है । जिस प्रकार अन्य बिमारियों के बारे में लोगों को जागरूक किया गया, जैसे -टीबी की बीमारी । टीवी, रेडियो, अखबार और पोस्टरों के माध्यम से लोगों टीबी के बारे में जागरूक किया गया और बताया गया कि, अगर आपको दो हफ्ते ज़्यादा खांसी आ रही और दवाई लेने के बावज़ूद आपको आराम नहीं है तो ये टीबी का लक्षण हो सकता है । इसके साथ-ही-साथ प्रचार में टीबी के लिए बनाये गए डॉट्स सेण्टर के बारे में भी जानकारी दी गयी, जहां वे टीबी की जांच के साथ -ही-साथ इसका इलाज भी करवा सकते है ।
ठीक इसी तरह अवसाद के लक्षणों और इसके उपचार सम्बंधित जानकारियों को प्रचार के माध्यम से लोगों तक पहुचना होगा ।
मनोचिकित्सक के प्रति भ्रान्ति :-
भारत के सन्दर्भ में मनोचिकित्सक को लेकर कई भ्रांतियां प्रचलित है, जो लोगों को मनोचिकित्सक से दूर और अवसाद की समस्या को बढ़ाने का काम करती है । भारत में ज़्यादातर लोग मनोचिकित्सक के पास जाने में संकोच महसूस करते है, जिसका मूल कारण है- मनोविज्ञान के प्रति उनकी गलत धारणा । आमतौर पर लोग मनोचिकित्सकों को पागलों का डॉक्टर समझते है और उनका मानना होता है कि मनोचिकित्सक के पास जाने वाला हर मरीज किसी न किसी पागलपन से ग्रसित है । ये धारणा लोगो को मनोचिकित्सकों के प्रति हमेशा बनी रहने वाली भ्रान्ति के रूप में घर कर जाती है, जिससे लोग उपचार उपलब्ध होते हुए भी अवसाद का शिकार होते चले जाते है ।
समाधान :-
मनोचिकित्सकों के प्रति लोगों की इस भ्रान्ति का प्रभावी माध्यम है- संचार । भारत के सन्दर्भ में मनोचिकित्सकों की आमजन में प्रचलित इस छवि (पागलों का डॉक्टर) बनने के कारकों को विश्लेषित किया जाए तो हम सिनेमा और टीवी सीरियलों को इस दृष्टिकोण को विकसित करने में अहम पाते है । जहां ज़्यादातर सिनेमा व टीवी सीरियलों में मनोचिकिसकों को पागलपन का इलाज़ करते मात्र फिल्माया गया है।
अतः सिनेमा और टीवी सीरियलों में मनोचिकित्सकों की इस छवि को सुधारा जाना आवश्यक है । और इसके साथ-ही-साथ मनोचिकित्सकों को विभिन्न विज्ञापनों के ज़रिए एक ऐसे किरेदार में प्रस्तुत करने की आवश्यता है जिससे लोग उनसे आसानी से जुड़ पाएं । जैसा की भारत सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में चलाई गई योजना के अंर्तगत नर्सों को 'आंगनबाड़ी बहनजी' के र्रूप में प्रस्तुत किया गया, जिनसे लोग बड़ी आसानी से जुड़ पाते है । ठीक उसी तरह मनोचिकित्सकों को विज्ञापनों के माध्यम से 'सलाहकार मित्र' जैसे किरेदार के तौर में प्रचारित करना आवश्यक है । जिससे समाज उनके प्रति बनी हुई,उस संकीर्ण मानसिकता को समाप्त किया जा सके ।
मनोवैज्ञानिकों की कमी :-
वर्तमान समय में भारत में कुल 3,500 पेशेवर मनोचिकित्सक है और जरूरत कुल 11,500 चिकित्सकों की है । मनोवैज्ञानिकों की कमी के कारकों में से एक प्रमुख कारक है- मेडिकल की इस शाखा में छात्रों का रुझान कम होना । मनोचिकित्सा में उन्हें उस रुतबे और शौहरत का अनुभव नहीं लगता जो अन्य शाखाओं में उपलब्ध है । इसका सीधा का कारण है मनोविज्ञान का दिखायी पड़ने वाला सीमित क्षेत्र ।
समाधान :-
मेडिकल की पढ़ाई करने वाले छात्रों के समक्ष मनोचिकित्सा में उनके भविष्य के अपार अवसरों के अवगत कराना अनिवार्य है । जिसके लिए कालेजों में सेमिनार व वर्कशाप का आयोजन किया जाना चाहिए । सेमिनार में जहां छात्रों के समक्ष मनोविज्ञान में छिपे अवसरों से अवगत कराना और मनोविज्ञान के प्रति उनके मन की भ्रांतियों को अलग किया जाना चाहिए । वहीं वर्कशाप के माध्यम से मनोविज्ञान में तकनीक और विज्ञान की पृष्ठभूमि पर मानसिक हलचलों को समझने की विधियों का परिचय कराना चाहिए । जिससे छात्रों का मनोविज्ञान के प्रति रुझान बढ़ेगा ।
इसके साथ ही साथ, सरकार को मनोविज्ञान सम्बंधित अलग-अलग रिसर्च सेण्टर और ट्रीटमेंट सेण्टर खुलवाने होंगे, जिससे मनोविज्ञान के सीमित क्षेत्र को और वृहत किया जा सके और रोजगार के अवसर भी खुल सके ।
सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष और एकाकीपन :-
अवसाद पर हुए अधिकांश शोधों में ये पाया गया कि मानव-जीवन का सामाजिक-सास्कृतिक जीवन में संघर्ष और एकाकीपन अवसाद के प्रमुख कारणों में से एक है । कहते है कि संसार की हर चीज क्षणिक है, जहां हर पल तेज़ी से बदलाव होता रहता है । लेकिन कई बार हमारा मन इन बदलावों के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चल पाता और नतीजन वह समाज और संस्कृति के बदलते पहलुओं को लिए लम्बे मानसिक संघर्ष के दौर में चला जाता है, जहां कुछ समय के बाद वो खुद को अकेला महसूस करने लगता है । ऐसी अवस्था अक्सर उस वक़्त होती है जब अपनी बातों को किसी को समझा नही पाते या फिर समझौता करने की प्रवित्ति लिए जीवन-व्यतीत करते है ।
समाधान :-
अवसाद के इलाजों में काउन्सलिंग को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । जो एक सफल इलाज़ भी है, जिसके अंतर्गत बातचीत के माध्यम से पीड़ित की मानसिक उलझनों का निदान किया जाता है । लेकिन अक्सर ऐसा पाया गया है कि लोग अपनी पहचान बताने में परेशानी महसूस करते है और कई बार गम्भीर स्तिथि होने के बावजूद वे इलाज के लिए नही जाते ।
इस समस्या के लिए एक फ्री हेल्पलाइन चलाई जानी चाहिए । जिसमें पीड़ित इंसान बिना अपनी पहचान बताये अपनी काउन्सलिंग करवा सके । जिस तरह भारत में किसान काल सेण्टर जैसी सुविधाओं के माध्यम से किसानों की मदद की जा रही है । ठीक उसी तरह अवसाद के लिए भी ऐसी हेल्पलाइन चलाई जानी चाहिए ।
स्रोत और उद्धरण
www.pratirodhkijameen.blogspot.in015/04/blog-post.html
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